अमीर खुसरो : भारतीय सांस्कृतिक पुरुष

तरुण प्रकाश श्रीवास्तव, सीनियर एग्जीक्यूटिव एडीटर-ICN ग्रुप 

यदि मध्यकालीन भारत को एक व्यक्ति के रूप में परखने की पहेली सुलझाने की शर्त हो तो इस शर्त को केवल एक ही उत्तर देकर जीता जा सकता है और वह है – खुद पहेलियों के बादशाह अमीर खुसरो।

 

अमीर खुसरो न केवल आज इतिहास के अंश हैं बल्कि वे अपने आप में संपूर्ण भूगोल, साहित्य, संगीत, संस्कृति व इतिहास भी हैं और तेजी से भागते हुये समय और बदलते हुये परिवेश के मध्य अपने स्थान पर मजबूती से ठहरा एक कालखण्ड भी। अपनी समय के लगभग सात सौ वर्षों के बाद भी वे अपने आप में समय का वह अध्याय हैं जिसकी न चमक कम हुई और न ही कागज़ पीला पड़ा। हमारे उत्तरी भारतीय संस्कृति, साहित्य व संगीत में स्थान-स्थान पर आज भी अमीर खुसरो अपनी पूरी ऊर्जा व ताजगी के साथ ज़िंदा हैं।

 

अमीर खुसरो अपने कालखण्ड के एक ऐसे स्फटिक हैं जिसके एक कोण में अरब की सभ्यता है तो दूसरे कोण में फ़ारसी संस्कृति झलकती है किंतु जब इस प्रिज़्म की संपूर्ण आभा को एक बिंदु पर संचित किया जाये तो वह अमीर खुसरो की ‘हिंदवी’ बन जाती है जो तत्कालीन भारतीयता की पहचान और खुशबू है।

 

ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार अमीर खुसरो का वास्तविक नाम अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद था तथा इनका जन्म सन् 1262 में उत्तर-प्रदेश के एटा जिले के पटियाली नामक ग्राम में गंगा किनारे हुआ था। गाँव पटियाली उन दिनों मोमिनपुर या मोमिनाबाद के नाम से जाना जाता था। इस गाँव में अमीर खुसरो के जन्म की बात हुमायूँ काल के हामिद बिन फ़जलुल्लाह जमाली ने अपने ऐतिहासिक ग्रंथ ‘तज़किरा सैरुल आरफीन’ में सबसे पहले कही। उनका परिवार कई पीढ़ियों से राजदरबार से सम्बंधित था I स्वयं अमीर खुसरो ने 7 सुल्तानों का शासन देखा था। लाचन जाति के तुर्क चंगेज खाँ के आक्रमणों से पीड़ित होकर बलबन के राज्यकाल में ‘’शरणार्थी के रूप में भारत में आ बसे थे। खुसरो की माँ बलबनके युद्धमंत्री इमादुतुल मुल्क की पुत्री तथा एक भारतीय मुसलमान महिला थी। इनके तीन पुत्रों में अबुलहसन (अमीर खुसरो) सबसे बड़े थे – चार वर्ष की उम्र में वे दिल्ली लाए गए। आठ वर्ष की उम्र में वे प्रसिद्ध सूफ़ी हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के शिष्य बने। 16-17 साल की उम्र में वे अमीरों के घर शायरी पढ़ने लगे थे। एक बार दिल्ली के एक मुशायरे में बलबन के भतीजे सुल्तान मुहम्मद को ख़ुसरो की शायरी बहुत पसंद आई और वो इन्हें अपने साथ मुल्तान (आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब) ले गया। सुल्तान मुहम्मद ख़ुद भी एक अच्छा शायर था – उसने खुसरो को एक अच्छा ओहदा दिया। मसनवी लिखवाई जिसमें 20 हज़ार शेर थे। पाँच साल तक मुल्तान में उनका ज़िंदगी बहुत ऐशो आराम से गुज़री। इसी समय मंगोलों का एक ख़ेमा पंजाब पर आक्रमण कर रहा था। इनको क़ैद कर हेरात ले जाया गया । मंगोलों ने सुल्तान मुहम्मद का सर कलम कर दिया था। दो साल के बाद इनकी शायरी का अंदाज़ देखकर छोड़ दिया गया। फिर वे पटियाली पहुँचे और फिर दिल्ली आए। अमीर खुसरो कैकुबाद के दरबार में भी रहे और वे भी इनकी शायरी से बहुत प्रसन्न थे और उन्होंने इन्हे मुलुकशुअरा (राष्ट्रकवि) घोषित किया। जलालुद्दीन खिलजी इसी वक़्त दिल्ली पर आक्रमण कर सत्ता पर काबिज़ हुआ। उसने भी इनको स्थाई स्थान दिया। जब खिलजी के भतीजे और दामाद अलाउद्दीन ने 70 वर्षीय जलालुद्दीन का क़त्ल कर सत्ता हथियाई तो भी वो अमीर खुसरो को दरबार में रखा। चित्तौड़ पर चढ़ाई के समय भी अमीर खुसरो ने अलाउद्दीन खिलजी को मना किया लेकिन वो नहीं माना। इसके बाद मलिक काफ़ूर ने अलाउद्दीन खिलजी से सत्ता हथियाई और मुबारक शाह ने मलिक काफ़ूर से।

 

खुसरो अत्यंत व्यवहार कुशल व बुद्धिमान व्यक्ति थे और सामाजिक जीवन की खुसरो ने कभी अवहेलना नहीं की। खुसरो ने अपना सारा जीवन राज्याश्रय में ही बिताया।

 

अमीर खुसरो पहले मुस्लिम कवि थे जिन्होंने अपने साहित्य में हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है I वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा I सच कहा जाये तो हिंदी की खड़ी बोली का आविष्कार उन्होंने ही किया और हम कह सकते हैं कि आज एक महाविराट बरगद के रूप में दिखाई देने वाले हिंदी साहित्य के वृक्ष की जड़ोें में अमीर खुसरों के विचारों और प्रयासों का अमृत ही मौजूद हेै जो अपने लगभग सात सौ वर्षों की लंबी यात्रा की गवाही दे रहा है।

 

अमीर खुसरों अपने अन्य साहित्य के अतिरिक्त अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए भी जाने जाते हैं। सबसे पहले उन्होंने ही अपनी भाषा के लिए हिन्दवी का उल्लेख किया था। वे फारसी के कवि भी थे।

 

न केवल साहित्य बल्कि संगीत के क्षेत्र में भी अमीर खुसरो का अत्यंत महत्वपूर्ण योगदान हैI उन्होंने भारतीय और ईरानी रागों का सुन्दर मिश्रण किया और एक नवीन राग शैली इमान, जिल्फ़, साजगरी आदि को जन्म दिया I भारतीय गायन में क़व्वाली और वाद्ययंत्र सितार को इन्हीं की देन माना जाता है। इन्होंने गीत के तर्ज पर फ़ारसी में और अरबी ग़जल के शब्दों को मिलाकर कई पहेलियाँ और दोहे भी लिखे हैं।

 

कहा जाता है कि अपने जीवन काल में अमीर खुसरो ने सौ से अधिक ग्रंथों की रचना की किंतु आज मात्र बीस- इक्कीस ग्रंथ ही उपलब्ध हैं। 

 

अमीर खुसरो ने अपना पंचगंज 698 हिज्री से 701 हिज्री के बीच लिखा यानि सन 1298 ई. से 1301 ई. तक। इसमें पाँच मसनवियाँ हैं। इन्हें खुसरो की पंचपदी भी कहते हैं। ये इस प्रकार है –

 

(1) मतला-उल-अनवार : निजामी के मखजनुल असरार का जवाब है। (698 हि./सन 1298 ई.) अर्थात रोशनी निकलने की जगह।  उस समय खुसरो की आयु 45 वर्ष थी। इसमें खुसरो ने अपनी इकलौती लड़की को सीख दी है जो बहुत सुन्दर थी। विवाह के पश्चात जब बेटी विदा होने लगी तो खुसरो ने उसे उपदेश दिया था – खबरदार चर्खा कभी न छोड़ना। झरोखे के पास बैठकर इधर-उधर न झाँकना। दरअसल इस ग्रंथ व बेटी को दिये गये उपदेशों के पार्श्व में तत्कालीन राजनीतिक व सामाजिक परिस्थितियां थीं। प्राचीन काल में यह रिवाज़ था कि जब कोई बादशाह अथवा शाहज़ादा अपने हमराहों के साथ सैर-सपाटा करने को निकलते थे तो जो भी युवती अथवा कन्या पसंद आ जाती थी तो वह अपने सिपहसालारों के माध्यम से उनके अभिभावक अथवा पति अथवा कन्या के पिता के पास भेज कर कहलवाते थे कि उनकी पुत्री, कन्या अथवा पत्नी को राजदरबार में भेज दें। यदि कोई तैयार नहीं होता था तो अपने सिपहसालारों के ज़रिये उसको उठवाकर अपने हरम में डाल देते थे तथा वह पहले बाँदियों के रुप में और बाद में रखैल बन कर रखी जाती थी। अत: वह बादशाहों व शाहजादों की बुरी नज़र से उसे बचा कर रखना चाहते थे। अमीर खुसरो ने अपनी बेटी को फ़ारसी के निम्न पद में सीख दी है –

 

दो को तोजन गुज़ाश्तन न पल अस्त, हालते-परदा पोकिंशशे बदन अस्त। 

पाक दामाने आफियत तद कुन, रुब ब दीवारो पुश्त बर दर कुन। 

गर तमाशाए-रोज़नत हवस अस्त, रोज़नत चश्मे-तोजने तो बस अस्त।।”

 

इस पद का अर्थ है – बेटी! चरखा कातना तथा सीना-पिरोना न छोड़ना। इसे छोड़ना अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह परदापोशी का, जि ढकने का अच्छा तरीक़ा है। औरतों को यही ठीक है कि वे घर पर दरवाज़े की ओर पीठ कर के घर में सुकून से बैठें। इधर-उधर ताक-झाँक न करें। झरोखे में से झाँकने की साध को ‘सुई’ की नकुए से देखकर पूरी करो। हमेशा परदे में रहा करो ताकि तुम्हें कोई देख न सके। उपर्युक्त प्रथम पंक्ति में यह संदेश था कि जब कभी आने जाने वाले को देखने का मन करे तो ऊपरी मंज़िल में परदा डालकर सुई के धागा डालने वाले छेद को आँख पर लगाकर बाज़ार का नज़ारा देखा करो। चरखा कातना इस बात को इंगित करता है कि घर में जो सूत काता जाए उससे कढ़े या गाढ़ा (मोटा कपड़ा) बुनवाकर घर के सभी मर्द तथा औरतें पहना करें। 

 

(2) शीरी व खुसरो – यह कवि निजामी की खुसरो व शीरी का जवाब है। यह 698 हिज्री/ सन 1298 ई.,  आयु 45 वर्ष में लिखी गई। खुसरो ने इसमें प्रेम की पीर को तीव्रतर बना दिया है। इसमें बड़े बेटे को सीख दी है। इस रोमांटिक अभिव्यक्ति में भावात्मक तन्मयता की प्रधानता है। डॉ. असद अली के अनुसार यह रचना अब उपलब्ध नहीं तथा इसकी खोज की जानी चाहिए।

 

(3) मजनूँ व लैला – निजामी के लैला मजनूँ का जवाब, रचनाकाल- 699 हिज्री, सन 1299 ई., आयु  46 वर्ष। प्रेम तथा ॠंगार की भावनाओं का चित्रण। इसमें 2660 पद हैं। इसका प्रत्येक शेर गागर में सागर के समान है। यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। कुछ विद्वान इसका काल 698 हिज्री भी मानते हैं। कलात्मक दृष्टि से जो विशेषताएँ ‘मजनूँ व लैला’ में पाई जाती हैं, वें और किसी मसनवी में नहीं हैं। प्रणय के रहस्य, प्रिय व प्रिया की रहस्यमयी बातें, प्रभाव और मनोभाव जिस सुन्दरता, सरलता, सहजता, रंगीनी और तड़प तथा लगन के साथ खुसरो ने इसको काव्य का रुप दिया है, उसका उदाहरण खुसरो के पूर्व के कवियों के काव्यों में अप्राप्य है। 

 

(4) आइने-सिकंदरी-या सिकंदर नामा – निजामी के सिकंदरनामा का जवाब (699 हिज्री/सन 1299 ई.) । इसमें सिकन्दरे आजम और खाकाने चीन की लड़ाई का वर्णन है। इसमें अमीर खुसरो ने अपने छोटे लड़के को सीख दी है। इसमें रोज़ीरोटी कमाने, व कुवते बाज़ू की रोटी को प्राथमिकता, हुनर (कला) सीखने, मज़हब की पाबंदी करने और सच बोलने की वह तरक़ीब है जो उन्होंने अपने बड़े बेटे को अपनी मसनवी शीरी खुसरो में दी है। इस रचना के द्वारा खुसरो यह दिखाना चाहते थे कि वे भी निजामी की तरह वीर रस प्रधान मसनवी लिख सकते हैं। 

 

(5) हशव-बहिश्त- निजामी के हफ्त पैकर का जवाब। इसका रचनाकाल 701 हिज्री/सन 1301 ई. माना जाता है। यह कृति फ़ारसी की सर्वश्रेष्ठ कृति के रूप में भी जानी जाती है। इसमें इरान के बहराम गोर और एक चीनी हसीना (सुन्दरी) की काल्पनिक प्रेम गाथा का बेहद ही मार्मिक चित्रण है जो दिल को छू जाने वाला है। इसमें खुसरो ने मानो अपना व्यक्तिगत दर्द पिरो दिया है। कहानी मूलत: विदेशी है अत: भारत से संबंधित बातें कम हैं। इसका वह भाग बेहद ही महत्वपूर्ण है जिसमें खुसरो ने अपनी बेटी को संबोधित कर उपदेशजनक बातें लिखी हैं। मौलाना शिबली (आजमगढ़) के अनुसार इसमें खुसरो की लेखन कला व शैली चरमोत्कर्ष को पहुँच गई है। घटनाओं के चित्रण की दृष्टि से फ़ारसी की कोई भी मसनवी, चाहे वह किसी भी काल की हो, इसका मुक़ाबला नहीं कर सकती।

 

इनके अतिरिक्त राजनीतिक पृष्ठभूमि पर किरान उस सादेन, मिफ़्ता उल फ़ुतूह, ख़ज़ाइन उल फ़ुतूह, आशिका, नूह. सिपिहर, तुगलकनामा इत्यादि उनकी प्रमुख रचनायें हैं। बहुत से विद्वान यद्यपि उनके राज्याश्रय प्रवृत्ति के कारण उन्हें विश्वसनीय इतिहासकार नहीं मानते हैं और उनके अनुसार खुसरो ने अपनी निहित निष्ठाओं के कारण अनेक यथार्थ ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी की किंतु जहाँ तक तिथियों की दृष्टि से इतिहास को परखने का प्रश्न है, वे बरनी के ऐतिहासिक महत्व पर कहीं भारी पड़ते हैं।

 

अमीर खुसरों की लगभग सात सौ वर्ष पूर्व सैकड़ों रचनायें आज भी भारतीय जनमानस में जस की तस सुरक्षित हैं और अनेक लोकाचारों व लोक संस्कृतियों के चलते आज भी लोगों की ज़ुबान पर संगीत की चाशनी के साथ मौजूद हैं।

 

पहेलियों की जितनी सुगठित रचना प्रक्रिया अमीर खुसरो ने समाज को दी, वह पहले उपलब्ध नहीं थी। मौलिकता खुसरो का एक दुर्लभ गुण था जिसने तत्कालीन साहित्य व संस्कृति को संपन्न किया। उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ व उलटबाँसियाँ आज भी साहित्य में बुद्धि व आनंद की पराकाष्ठा का संकेत करती हैं। आइये, उनकी कुछ पहेलियों का लुत्फ़ उठाते हुये उनके शिल्प को समझने का प्रयास करते हैं – 

 

तरवर से इक तिरिया उतरी उसने बहुत रिझाया।

बाप का उससे नाम जो पूछा आधा नाम बताया।।

आधा नाम पिता पर प्यारा बूझ पहेली मोरी।

अमीर ख़ुसरो यूँ कहेम अपना नाम नबोली।।”

उत्तर – निम्बोली

 

बीसों का सर काट लिया।

ना मारा ना ख़ून किया ।।”

उत्तर—नाखून

 

अमीर खुसरो की मुकरियाँ भी उनका मौलिक आविष्कार थीं। आइये, एक ऐसी ही मुकरी पर दृष्टिपात करते हैं –

 

खा गया पी गया 

दे गया बुत्ता 

ऐ सखि साजन? 

ना सखि कुत्ता!”

 

एक और –

 

“लिपट लिपट के वा के सोई ।

छाती से छाती लगा के रोई ।।

दांत से दांत बजे तो ताड़ा ।

ऐ सखि साजन? ना सखि जाड़ा।।”

 

अमीर खुसरो की बूझ पहेली भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। इनकी विशेषता यह है कि पहेली में ही उसका उत्तर भी छिपा रहता है। बानगी के लिये –

 

श्याम बरन और दाँत अनेक, 

लचकत जैसे नारी।

दोनों हाथ से खुसरो खींचे 

और कहे तू आ री।।”

उत्तर- आरी

 

खुसरो की अबूझ पहेलियाँ वे हैं जिनमें उत्तर पहेली में नहीं मिलता। जैसे –

 

“एक जानवर रंग रंगीला, 

बिना मारे वह रोवे।

उस के सिर पर तीन तिलाके, 

बिन बताए सोवे।।”

उत्तर – मोर।

 

खुसरो के दोहे भारतीय साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। उन्होंने दोहों में भी अनेक प्रयोग किये हैं। यहाँ तक कि उनकी दोहा पहेली भी एक चर्चित विधा है। ज़रा देखिये तो –

 

एक नारी के हैं दो बालक, दोनों एकहि रंग।

एक फिर एक ठाढ़ा रहे, फिर भी दोनों संग।।”

उत्तर – चक्की।

 

अमीर खुसरो की उलटबाँसियां भी बहुत मशहूर हैं। बानगी के तौर पर –

 

खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय।

आयो कुत्तो खा गयो, तू बैठी ढोल बजाय।।”

 

अमीर खुसरो की एक और विशिष्ट विधा दुसुख़ने है जहाँ एक ही उत्तर दो परिस्थितियों में लागू होता है। आइये, इसका भी आनंद उठाते हैं –

 

गोश्त क्यों न खाया? 

डोम क्यों न गाया?”

उत्तर—गला न था 

 

और एक यह भी –

 

“जूता पहना नहीं।

समोसा खाया नहीं ।।”

उत्तर— तला न था

 

इस दुसुख़ने से एक ऐतिहासिक तथ्य और भी निर्विवादित रूप से स्थापित होता है कि अपना प्रिय व्यंजन ‘समोसा’ सात सौ वर्ष पूर्व भी उपस्थित था।

 

दोहों में तो अमीर खुसरो का जवाब ही नहीं है। प्रेम व रहस्य में सराबोर उनके अनेक दोहे कबीर के आस-पास मंडराते हैं। आइये, इनका भी आनंद लें –

 

खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग। 

तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।।”

 

एवं

 

“खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार। 

जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।।” 

 

और

 

खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय।

पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।।”

 

तथा

 

गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस। 

चल खुसरो घर आपने, सांझ भयी चहु देस।।”

 

अमीर खुसरो ग़ज़लों के शायर भी थे। फ़ारसी व हिंदवी में उनकी एक ग़ज़ल बहुत लोकप्रिय है –

 

ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनाँ बनाए बतियाँ 

 

कि ताब-ए-हिज्राँ नदारम ऐ जाँ न लेहू काहे लगाए छतियाँ 

 

शबान-ए-हिज्राँ दराज़ चूँ ज़ुल्फ़ ओ रोज़-ए-वसलत चूँ उम्र-ए-कोताह 

 

सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ अँधेरी रतियाँ 

 

यकायक अज़ दिल दो चश्म जादू ब-सद-फ़रेबम ब-बुर्द तस्कीं 

 

किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ 

 

चूँ शम-ए-सोज़ाँ चूँ ज़र्रा हैराँ ज़ मेहर-ए-आँ-मह बगश्तम आख़िर 

 

न नींद नैनाँ न अंग चैनाँ न आप आवे न भेजे पतियाँ 

 

ब-हक़्क़-ए-आँ मह कि रोज़-ए-महशर ब-दाद मारा फ़रेब ‘ख़ुसरव’ 

 

सपीत मन के दुराय राखूँ जो जाए पाऊँ पिया की खतियाँ “

 

और पिता और बेटी के रिश्तों के धरातल पर खुसरो द्वारा रचा गया यह गीत गाहे-बगाहे आज भी हम सबकी ज़िंदगी के साथ-साथ चल रहा है, उसी ताजगी के साथ, उसी खुशबू के साथ और उसी आंतरिक पीड़ा के साथ – 

 

काहे को ब्याहे बिदेस, अरे, लखिय बाबुल मोरे

काहे को ब्याहे बिदेस

 

भैया को दियो बाबुल महले दो-महले

हमको दियो परदेस

अरे, लखिय बाबुल मोरे

काहे को ब्याहे बिदेस

 

हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गैयाँ

जित हाँके हँक जैहें

अरे, लखिय बाबुल मोरे

काहे को ब्याहे बिदेस

 

हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ

घर-घर माँगे हैं जैहें

अरे, लखिय बाबुल मोरे

काहे को ब्याहे बिदेस

 

कोठे तले से पलकिया जो निकली

बीरन में छाए पछाड़

अरे, लखिय बाबुल मोरे

काहे को ब्याहे बिदेस

 

हम तो हैं बाबुल तोरे पिंजरे की चिड़ियाँ

भोर भये उड़ जैहें

अरे, लखिय बाबुल मोरे

काहे को ब्याहे बिदेस

 

तारों भरी मैनें गुड़िया जो छोडी़

छूटा सहेली का साथ

अरे, लखिय बाबुल मोरे

काहे को ब्याहे बिदेस

 

डोली का पर्दा उठा के जो देखा

आया पिया का देस

अरे, लखिय बाबुल मोरे

काहे को ब्याहे बिदेस

 

अरे, लखिय बाबुल मोरे

काहे को ब्याहे बिदेस

अरे, लखिय बाबुल मोरे।”

 

सच कहा जाये तो भले ही कुछ लोग तत्कालीन इतिहास को अमीर खुसरो की दृष्टि से देखना और परखना न चाहें लेकिन जब कभी अरब, फारस और तत्कालीन भारत की संस्कृति को मात्र एक व्यक्ति के हवाले से समझने और परखने की बात आयेगी तो विश्व में किसी के भी समक्ष मात्र और मात्र अमीर खुसरो ही उपस्थित होंगे, यह तय है।

 

यदि एक वाक्य में अमीर खुसरो को समझने का प्रयास किया जाये तो मेरी दृष्टि में सिर्फ़ यही कहा जा सकता है कि अमीर खुसरो मध्ययुगीन काल के भारतीय सांस्कृतिक पुरुष थे।

 

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